Gazal खुदकशी क्या ग़मों हल बनती

हम तो बचपन में भी अकेले थे
सिर्फ़ दिल की गली में खेले थे

एक तरफ़ मोर्चे थे पलकों के
एक तरफ़ आंसूओं के रेले थे

थी सजी हसरतें दूकानों पर
ज़िंदगी के अजीब मेले थे

आज ज़हनों दिल भुखे मरते हैं
उन दिनों फ़ाके भी हम ने झेले हैं

खुदकशी क्या ग़मों हल बनती
मौत के अपने भी सौ झमेले हैं

Gazal by जावेद अख्तर

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